आक्रोश
यूँ तो हैं आक्रोश में दोनों जहां
सिलसिले थमते नहीं फिर भी यहाँ
नारियां बस भोग्य बस्तु रह गईं
मानसिकता की विकृति सब कह गई
क्या पुरुष के दंभ का है ये निशां
ये दमन का चक्र सदियों से चला
पर पुरुष को दंड ना कोई मिला
रोज़ लिखते हैं नई इक दास्ताँ
बेटियां, माँ और बहन हर घर में है
आज क्यों गुमसुम सी इतने डर में है
देखता कब तक रहेगा नौजवां
Sunil_Telang/22/12/2012
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