त्यौहार
उजालों की चमक में ग़म के अँधेरे छुपाते हैं
बने हैं बोझ ये त्यौहार हम फिर भी मनाते हैं
बिगाड़ा है बजट घर का हुई कैसी ये मंहगाई
बढ़ी रौनक बाज़ारों की मगर सब हैं तमाशाई
महज़ कीमत ही बस हम पूछकर घर लौट आते हैं
बनी मेहमां- नवाजी भी महज़ इक औपचारिकता
वो हर्षोल्लास अपनापन भी उतना अब नहीं दिखता
ये झूठी शानो-शौकत का नज़ारा सब दिखाते हैं
इलेक्ट्रॉनिक्स ने कितने गरीबों को रुला डाला
दिये बाती हुये कम आ गईं हैं चायनीज़ माला
मिठाई छोड़कर अब ड्राई फ्रूट बादाम लाते हैं
ज़रुरत आ पड़ी है खर्च पर अब कुछ नियंत्रण हो
पटाखों का चलन हो कम हवा में कम प्रदूषण हो
रहे खुशहाल जग सारा ये उम्मीदें जताते हैं
Sunil_Telang/31/10/2013