इक ओर थी उजालों में क़ायनात खोई
इक ओर भूखा प्यासा बैठा हुआ था कोई
ये कैसी दीवाली थी जिसमें ख़ुशी भी रोई
जो भी हुई थी सारे परिवार की कमाई
इक सरफिरे पिता ने मय खाने में लुटाई
माँ बाप में हुई थी फिर रात भर लड़ाई
ना कोई बम पटाखे ना आ सकी मिठाई
अँधेरी कोठरी में दीपक जला न कोई
बेटा डरा था, सहमी बेटी उदास सोई
ये कैसी दीवाली थी जिसमें ख़ुशी भी रोई
कुछ लोग जी रहे हैं दिल में लिये बुराई
हर रोज़ की नसीहत उन को ना रोक पाई
ये जुआ शराब की लत करती है बेवफाई
दो पल की है ये मस्ती बाकी है जग हँसाई
जिसने भी अपने घर में विष की ये बेल बोई
जीते हुये भी उसने पहचान अपनी खोई
ये कैसी दीवाली थी जिसमें ख़ुशी भी रोई
Sunil _Telang /04 /11 /2013
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