दुहाई
मंज़ूर नहीं हमको बातें ईमान की
बस दास्तां यही है हिन्दोस्तान की
वो पड़ गया अकेला सच्चाई की डगर पे
तोहमत लगा दीं उसपे सारे जहान की
घर में ही बैठे बैठे देखेंगे सब तमाशा
फितरत रही सदा ये आम इन्सान की
ये जात और मज़हब में बंट रही खुदाई
सौगात बन गई है दुश्मन ये जान की
अब कौन यहां है जो फ़रियाद सुने तेरी
देते रहो दुहाई बस संविधान की
Sunil_Telang/30/04/2014
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