हकीकत
हकीकत वो नहीं होती नज़र आती है जो अक्सर
ज़रा तस्वीर के पीछे भी तो इक बार देखा कर
बदल पाये नही कुछ भी ज़मीं के वो खुदा बन के
हमें बहलाते रहते हैं रुपहले ख्वाब दिखला कर
उमर गुज़री ख़तम होता नहीं हैं मोह सत्ता का
कोई चाहे ना चाहे पर बने हैं बोझ जनता पर
किसे अब दोष दें हम खुद बने बैठे तमाशाई
सितम सहते रहे उनके कभी हँसकर कभी रोकर
नई उम्मीद जागी है हुआ बदलाव कुछ ऐसा
सताने लग गया हर ख़ास को आम आदमी का डर
Sunil_Telang/18/01/2014
No comments:
Post a Comment