आरज़ू
अपनी जुबां से रोज़ मुकरने लगे हैं लोग
कुछ पूछने के डर से सिहरने लगे हैं लोग
बढ़ने लगा है कथनी करनी में फर्क इतना
आईना देखने से डरने लगे हैं लोग
टूटी हैं बंदिशें अब रहता नहीं है काबू
खिलवाड़ अस्मिता से करने लगे हैं लोग
सबको फिकर लगी है अपने वज़ूद की
पत्तों की तरह उड़ के बिखरने लगे हैं लोग
शायद कोई सँवारे बेरंग ज़िन्दगी को
जीने की आरज़ू में मरने लगे हैं लोग
Sunil_Telang/27/03/2014
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