सबर
परेशानी तो है लेकिन जुबां से कुछ नहीं कहते
गुज़र जाती है सारी उम्र बस ज़ुल्मो सितम सहते
बड़ी उम्मीद से तकते हैं शायद इक करिश्मा हो
मगर रह जाते हैं ख़्वाबों को अक्सर देखते ढहते
समझ में कुछ नहीं आता हुआ क्या हुक्मरानों को
अहम मुद्दों पे भी ये मूक दर्शक क्यों बने रहते
नहीं वादों की कोई अहमियत, है फिर वही किस्सा
गरीबों की दो आँखों से रहेंगे अश्क़ ही बहते
धरम और जाति के झगड़ों में हमको झोंकने वालो
सबर का इम्तिहां ना लो संभल जाओ समय रहते
Sunil_Telang/29/08/2014
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