हुनर
तुमको थी शायद ज़माने की फिकर
इसलिये तुम चल दिये मुंह फेरकर
तुमने ये सोचा
नहीं कोई यहाँ
जी रहा है सिर्फ
तुमको देख कर
दूसरों को लोग क्यों इल्जाम दें
बेबसी
को बेवफाई नाम दें
ये मोहब्बत ज़िन्दगी है या क़ज़ा
जीते जी समझा नहीं कोई बशर
यूँ ही सदियों से चला ये सिलसिला
है ख़ुशी कम,बस ग़मों का काफिला
जाने किसको क्या मज़ा इसमें मिला
कुछ नहीं
होता नसीहत का असर
मिल ना पाते हैं नदी के दो किनारे
जायें तो जायें कहाँ उल्फत के मारे
ज़िन्दगी हँसकर कोई रो कर गुज़ारे
अपना अपना शौक है अपना हुनर
Sunil_Telang/25/08/2014
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