बहस
भूल कर मुद्दे ज़रूरी इक बहस होती रही
भूख से व्याकुल गरीबी रात दिन रोती रही
हर किसी को फ़िक्र थी शालीनता भाषा में हो
पर जुबानी जंग मर्यादा वहीं खोती रही
आपसी छींटाकशी में वक़्त सारा ढल गया
बुत परस्ती नफरतों के बीज बस बोती रही
सिर्फ "मैं" का ज़िक्र है जागी है सता की ललक
लूट , भ्रष्टाचार, मंहगाई कहीं सोती रही
आम जन से दूर जनता के नुमाइन्दे हुये
इतने बरसों तक ये जनता बोझ बस ढोती रही
Sunil_Telang/15/11/2013

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