आदमी
किसकी खातिर जी रहा है आदमी
इक तमाशा ही रहा है आदमी
जेब अपनी सीं रहा है आदमी
हुक्मरानों की नज़र में उम्र भर
एक फरियादी रहा है आदमी
खो गयी इंसानियत इस भीड़ में
खून अपना पी रहा है आदमी
ज़ुल्म की है इन्तेहा कुछ याद कर
इन्किलाबी भी रहा है आदमी
Sunil_Telang
No comments:
Post a Comment