Tuesday, November 11, 2014

KADR


कद्र 

रोज़ कपड़ों की तरह मोबाइल तुम बदला  किये 
उनकी आँखों  का तुम्हें चश्मा नज़र आता नहीं 

तेरी  चिन्ता  में  नज़र  दरवाजे  से  हटती नहीं 
देर आधी  रात  को  जब  तक तू घर आता नहीं 

हर  घडी  मंहगाई  का  रोना  है बस उनके लिये 
आधुनिकता  का  हुआ कैसा असर, जाता  नहीं

अपने बचपन की ज़रा फरमाइशों  को याद कर 
देख कर उनकी तड़प दिल तेरा  भर आता नहीं 

तू  उन्हें  अपनाये  या  ठुकराये   है  मर्जी  तेरी 
कैसे कह दें तुझसे  उनका अब कोई नाता नहीं 

ले  चुकी  हैं  तेरी  औलादें  जनम , ये  समझ ले  
कौन है जिसको ये वक़्त आईना दिखलाता नहीं 

जीते जी ना कर सका जो कद्र माँ और बाप की 
सात जन्मों तक सुकूं वो शख्स फिर पाता नहीं 

Sunil _Telang /11/11/2014





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