कीमत
हर सुबह अखबार पढ़ते
दिन उगे सूरज के चढ़ते
कंपकंपाते हाथ क्यों हैं
चाय की प्याली पकड़ते
रोज़ ही आती है अक्सर
कुछ खबर ऐसी निकलकर
दिल को जो झकझोरती है
दिन निकलता खुद से लड़ते
आ गये हैं हम कहाँ पर
अपनी दिनचर्या में फंस कर
देख ना पाये, हैं कितने
लोग चलते गिरते पड़ते
जी रही जनता सिसकती
ज़िन्दगी से मौत सस्ती
नारियां हैं इक खिलौना
बिक गया है तंत्र सड़ते
सिर्फ टीवी फेसबुक पर
प्रतिक्रियायें रोज़ देकर
रोक हम पायेंगे कैसे
देश का आलम बिगड़ते
अपने मन में ठान लो अब
खुद की कीमत जान लो अब
एक दिन देखोगे तुम भी
भ्रष्ट शासन को उखड़ते
Sunil_Telang/15/03/2013

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