MAIN KALAM
दास्ताँ रोज़ सुना देता हूँ
कुछ नये शेर बना देता हूँ
ज़ुल्म की इन्तेहा जब होती है
मैं कलम अपनी चला देता हूँ
रोज़ चलता है खेल वहशत का
कैसा माहौल हुआ दहशत का
बच्चियां खेल की इक चीज़ हुईं
कोई रखवाला नहीं अस्मत का
पीर जिस पर भी ये गुज़रती है
उनके ज़ख्मों की दवा देता हूँ
मैं कलम अपनी चला देता हूँ
हादसे , लूट और हत्यायें
रोज़ कटती हैं सैंकड़ों गायें
तपी धरती उजाड़ के जंगल
कैसे पेड़ों के बिन हवा पायें
अक़्लमंदों की ऐसी नादानी
देख कर अश्क़ बहा देता हूँ
मैं कलम अपनी चला देता हूँ
कौन, किससे, कहाँ फ़रियाद करे
बागवां खुद चमन बर्बाद करे
जीते जी कुछ भलाई कर लेना
बाद मरने के कौन याद करे
बेखबर, बेफिकर जो सोये हैं
नींद से उनको जगा देता हूँ
मैं कलम अपनी चला देता हूँ
Sunil_Telang/14/06/2019
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