Friday, September 5, 2014

KARZ


क़र्ज़ 

हम तो कच्चे थे  घड़े,  हमको  दिया आकार तुमने 
जो प्रगति का ख्वाब देखा था किया साकार तुमने
क़र्ज़  कैसे  हम  चुकायें, हम तुम्हें कुछ  दे ना पाये 
अपनी  सेवा  का कभी चाहा नहीं प्रतिकार  तुमने 

तुम  बहाते   हो  धरा  पर ज्ञान  की  चहुँ ओर गंगा 
आदमी  पढ़ लिख  के भी दिखला रहा है नाच नंगा
हुस्न बालाओं  का तन  ढंकने लगा  अपना तिरंगा
देश   की  हर  दुर्दशा  का   भी  उठाया  भार  तुमने 

बन  गयी व्यापार शिक्षा , शिक्षकों का मान खोया 
नित नये  भर्ती  के  घोटालों  ने इज़्ज़त को डुबोया 
जो मिला हँस के उसी में  कर लिया अपना गुज़ारा 
वक़्त  के  निर्दय  थपेड़ों  की  भी  झेली मार तुमने 

हो  गयी   है  औपचारिकता   तुम्हें   सम्मान  देना 
है  ज़रूरी  अब  सभी  प्रतिभाओं पर भी ध्यान देना  
है असंभव जीते  जी  शिक्षक   के कर्जों को चुकाना 
दे के अमृत खुद गरल को कर लिया स्वीकार तुमने  

Sunil_Telang/05/09/2014

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